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जब हम किसी संत की बुराई करते हैं तो निरंकार का ज्ञान मिलता ही नहीं है उसको जो करता

संत की निंदा: जब हम अपने पथ से भटक जाते हैं

जब हम किसी संत की बुराई करने लगते हैं, तो अक्सर हम अपने मूल मकसद को भूल जाते हैं। वह मकसद है इस निरंकार के साम्राज्य में, उसके प्रेम और शांति में रहना। जैसे ही हमारी वाणी और विचार संतों की निंदा की ओर मुड़ते हैं, एक संत के जीवन में ही नहीं, बल्कि उस निंदा करने वाले व्यक्ति के जीवन में भी कठिनाइयां स्वयं ही आने लगती हैं। यह एक अकाट्य सत्य है कि जब हम दूसरों की निंदा में उलझते हैं, तो हम स्वयं को ही अपने आध्यात्मिक पथ से दूर कर लेते हैं।

निरंकारी संत सद्गुरु के दिखाए मार्ग पर चलते हुए, हमें सदैव प्रेम, नम्रता और सेवा भाव से रहना सिखाया जाता है। सतगुरु हमें बताते हैं कि सभी में एक ही निरंकार का वास है। जब हम किसी संत की निंदा करते हैं, तो वास्तव में हम उस निरंकार की ही निंदा कर रहे होते हैं, जो सभी में समान रूप से विद्यमान है। यह एक गंभीर त्रुटि है, क्योंकि यह हमें उस एकात्मता के भाव से दूर ले जाती है, जो निरंकार के प्रति हमारी श्रद्धा का मूल आधार है।

संतों का जीवन त्याग, तपस्या और परोपकार का प्रतीक होता है। वे अपना पूरा जीवन मानवता की सेवा और निरंकार के संदेश को जन-जन तक पहुंचाने में समर्पित कर देते हैं। उनकी आलोचना करना या उनकी बुराई करना, उस सेवा और समर्पण का अनादर करना है। जब हम ऐसा करते हैं, तो हम अनजाने में ही नकारात्मक ऊर्जा को अपने भीतर आमंत्रित करते हैं, जिससे हमारे मन की शांति भंग होती है और हमारे जीवन में अनावश्यक बाधाएं आने लगती हैं।

विचार कीजिए, जब हम दूसरों की कमियां ढूंढने में अपना समय और ऊर्जा लगाते हैं, तब हम स्वयं की आंतरिक उन्नति पर ध्यान नहीं दे पाते। हमारी दृष्टि संकुचित हो जाती है और हम सतगुरु के दिव्य ज्ञान से वंचित रह जाते हैं। यह वैसा ही है जैसे कोई व्यक्ति हीरे-मोती की खान में जाकर मिट्टी के ढेले चुनने लगे। संतों का संग और उनके वचनों का श्रवण हमारे जीवन को अमूल्य रत्नों से भर देता है, लेकिन निंदा की आदत हमें इन रत्नों से दूर कर देती है।

एक संत का जीवन तो हमें यह सिखाता है कि कैसे हर परिस्थिति में स्थिर रहा जाए, कैसे अहंकार का त्याग कर निरंकार की शरण में रहा जाए। जब हम उनकी निंदा करते हैं, तो हम उनके द्वारा दिखाए गए इन्हीं गुणों से विमुख हो जाते हैं। हम अपने अहंकार को पुष्ट करते हैं और स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ समझने की भूल करते हैं। यह अहंकार ही हमारे पतन का कारण बनता है।

निरंकार का यह साम्राज्य प्रेम और भाईचारे पर आधारित है। यहां पर हर व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति में निरंकार का स्वरूप देखना सिखाया जाता है। जब हम इस मूल सिद्धांत को भूलकर किसी की बुराई करने लगते हैं, तो हम इस दिव्य साम्राज्य के नियमों का उल्लंघन करते हैं। इसके परिणामस्वरूप, हमारे जीवन में स्वयं ही कठिनाइयां आने लगती हैं, क्योंकि हमने उस प्रेम और एकता के प्रवाह को बाधित कर दिया है।

हमें सदैव स्मरण रखना चाहिए कि हमारा परम लक्ष्य निरंकार से जुड़ना है। यह तभी संभव है जब हम अपने मन को शुद्ध रखें, दूसरों के प्रति प्रेम और सम्मान का भाव रखें, और सतगुरु के वचनों का पालन करें। जब हम किसी संत की निंदा करते हैं, तो हम अपने मन में कटुता भरते हैं, जिससे निरंकार से हमारा संबंध कमजोर होता है। इसलिए, आओ हम सभी निंदा की इस प्रवृत्ति का त्याग करें और प्रेम, सेवा और सुमिरन के मार्ग पर चलकर अपने जीवन को सफल बनाएं।

प्यार से बोलना धन निरंकार जी। यहां पर हम सेवा सत्संग के विचारों को रखते हैं।

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