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अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों को सत्संग में अधिकारी क्यों नहीं बनाया जाता है ?

 # जब सत्संग में सेवा से बढ़कर पद को मिलती है प्राथमिकता


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आजकल सत्संग और धार्मिक संस्थाओं में एक ऐसी प्रवृत्ति देखने को मिल रही है जो चिंता का विषय है। यह एक ऐसा मुद्दा है जो सीधे तौर पर उन मूल्यों को चुनौती देता है जिन पर ये संस्थाएं आधारित हैं। जब हम सत्संग की बात करते हैं, तो हमारे मन में निःस्वार्थ सेवा, त्याग और भक्ति का भाव आता है। लेकिन, जब हम यह देखते हैं कि सेवा की जगह पद को, और त्याग की जगह विरासत को प्राथमिकता दी जा रही है, तो मन में कई सवाल उठते हैं।


## जब सेवा का मोल नहीं, पद का महत्व है


अक्सर, धार्मिक सत्संगों में यह देखा जाता है कि जिन लोगों के माता-पिता या दादा-दादी ने कभी कोई बड़ी सेवा की हो, उन्हें सम्मान देने के बहाने सत्संग में कोई आधिकारिक पद दे दिया जाता है। यह एक ऐसी सोच है जो कई दशकों से निःस्वार्थ भाव से सेवा कर रहे लोगों की मेहनत और समर्पण को अनदेखा करती है। ये सेवादार, जिन्होंने अपना पूरा जीवन सत्संग को समर्पित कर दिया, कभी किसी पद की लालसा नहीं रखते। उनका एकमात्र उद्देश्य सत्य की सेवा करना होता है। लेकिन, जब किसी ऐसे व्यक्ति को पद मिलता है जो शायद ही कभी सत्संग में पूरा समय दे पाता हो, तो उनके मन में क्या बीतती होगी?


यह सिर्फ उनके मन को ठेस पहुँचाने की बात नहीं है, बल्कि यह सत्संग के मूलभूत सिद्धांतों को भी कमजोर करता है। जब किसी संस्था में योग्यता और सेवा को दरकिनार करके वंशवाद को बढ़ावा दिया जाता है, तो वहाँ आंतरिक कलह और निराशा का जन्म होता है। जो लोग सच्ची लगन से जुड़े हैं, वे खुद को उपेक्षित महसूस करने लगते हैं, जिससे उनकी सेवा भावना में कमी आ सकती है।


## क्या सत्संग भी जातिवाद का शिकार हो रहा है?


जब हम पद के लिए वंशवाद को देखते हैं, तो एक और गंभीर सवाल हमारे सामने आता है: क्या सत्संग में भी जातिवाद को बढ़ावा दिया जा रहा है? कुछ लोगों का मानना है कि इस तरह की प्रथाओं के चलते एक ही जाति या विशेष वर्ग के लोगों को आधिकारिक पदों पर नियुक्त किया जाता है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों को, जो शायद सबसे अधिक समर्पण और सेवा भावना के साथ जुड़े होते हैं, अक्सर पीछे छोड़ दिया जाता है।


अगर ऐसा है, तो यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है। सत्संग का उद्देश्य तो सभी को एक साथ लाना है, हर तरह के भेदभाव को मिटाना है। सत्य की आवाज किसी जाति, धर्म या वर्ग की मोहताज नहीं होती। यह सबके लिए है। जब हम सत्य की आवाज को दूर-दूर तक पहुँचाने की बात करते हैं, तो इस तरह की संकीर्ण सोच और भेदभाव का क्या काम? यह सत्संग के मूल संदेश को ही दूषित कर देता है।


## सत्य की आवाज को दूर-दूर तक पहुँचाने का सही तरीका


सत्य की आवाज को तभी दूर-दूर तक पहुँचाया जा सकता है जब हम इसके सिद्धांतों को अपने जीवन में उतारें। इसमें सबसे महत्वपूर्ण है **समानता, निस्वार्थता और प्रेम**। किसी भी संस्था की नींव सेवा और त्याग पर रखी जानी चाहिए, न कि पद और विरासत पर।




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