सत्संग का उद्देश्य: आत्मिक उन्नति या आलोचना का पतन?
सत्संग, शब्द मात्र नहीं, यह आत्मा की खुराक है। यह वह स्थल है जहाँ हम अपने जीवन के विकारों को छोड़कर, सतगुरु की कृपा से आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करते हैं। संतों की वाणी, भजन, और निरंकार के स्वरूप का साक्षात्कार हमारे मन को शांति प्रदान करते हैं। हम सत्संग में इसलिए जाते हैं ताकि जीवन में आए हुए दुःख, भ्रम, और मोह से ऊपर उठकर सच्चे आनंद की अनुभूति कर सकें।
लेकिन जब यही सत्संग आलोचना का केंद्र बन जाए, तो उस पावन ऊर्जा का ह्रास हो जाता है। जब किसी संत की सेवा का मज़ाक उड़ाया जाता है, जब किसी के प्रयासों को तुच्छ समझकर उनकी निंदा की जाती है, तब वह दिव्यता छिन जाती है जिसके लिए हम सत्संग में आए थे। यह सोचने की आवश्यकता है कि क्या हम वहाँ आत्मा के कल्याण हेतु पहुँचे हैं, या किसी की कमियों को देखने और फैलाने के लिए?
महापुरुषों ने बार-बार समझाया है कि सत्संग सिर्फ सुनने का स्थान नहीं है, यह आत्मा को जोड़ने का माध्यम है। जब हम किसी संत की सेवा को ही बुराई की दृष्टि से देखने लगते हैं, तो हम स्वयं उस सत्संग के उद्देश्य से दूर हो जाते हैं।
हमारा फोकस निरंकार पर होना चाहिए, उस परम ज्योति पर जो हमें अंदर से प्रकाशित करती है। यदि हम दूसरों की आलोचना में समय गँवा देते हैं, तो यह मान लेना चाहिए कि हम अभी भी आत्मिक रूप से जागरूक नहीं हुए हैं। सत्संग वह दर्पण है जिसमें हम स्वयं को निहारें, न कि दूसरों के दोषों की गिनती करें।
संत निरंकारी मिशन की शिक्षाएं स्पष्ट कहती हैं:
"दूसरों की गलती देखने से बेहतर है, अपनी सोच को शुद्ध किया जाए।"
सेवा, सिमरण और सत्संग की त्रीणी के सहारे ही आत्मिक यात्रा को सार्थक किया जा सकता है।
अतः आइए, सत्संग को पवित्र रखें।
बिना भेदभाव, बिना निंदा, केवल भक्ति और श्रद्धा के साथ उस निरंकार प्रभु से जुड़ने का संकल्प लें।
हर संत की सेवा को आदर दें, क्योंकि सेवा केवल कर्म नहीं, यह एक साधना है।
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