सत्संग: सेवा और भक्ति या अहंकार का मैदान?
परिचय:
सत्संग, भक्ति और सेवा का एक पवित्र मंच होता है। लेकिन अक्सर हम देखते हैं कि सत्संगों में दान पुण्य की रसीद बुक को लेकर एक अनचाही प्रतियोगिता पैदा हो जाती है। यह प्रतियोगिता न केवल संत महापुरुषों के आदर्शों के विपरीत है बल्कि सत्संग के मूल उद्देश्य से भी विचलित करती है।
रसीद बुक: एक अहंकार का प्रतीक
- अहंकार का पोषण: रसीद बुक को अपने पास रखने वाले लोग अक्सर खुद को बड़ा और प्रसिद्ध मानने लगते हैं। उन्हें लगता है कि वे दूसरों से श्रेष्ठ हैं।
- सेवा से ध्यान हटना: रसीद बुक को लेकर होने वाली प्रतियोगिता के कारण लोग सेवा और भक्ति से ध्यान हटाकर पद और प्रतिष्ठा की ओर बढ़ने लगते हैं।
- संतों के आदर्शों का खंडन: यह प्रतियोगिता संत महापुरुषों के त्याग, वैराग्य और सेवा के आदर्शों के बिल्कुल विपरीत है।
बड़े स्तर के अधिकारी और छोटी-छोटी जिम्मेदारी
- कर्तव्य भूल जाना: बड़े स्तर के अधिकारी भी छोटी-छोटी जिम्मेदारियों को लेकर एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते हैं और अपने कर्तव्यों को भूल जाते हैं।
- सत्संग का वातावरण खराब होना: इस तरह की प्रतिस्पर्धा सत्संग के पवित्र वातावरण को खराब करती है और लोगों को आपस में लड़ने के लिए उकसाती है।
हमें क्या करना चाहिए?
- अहंकार का त्याग: हमें अपने अहंकार को त्यागकर सेवा और भक्ति के मार्ग पर चलना चाहिए।
- सत्संग के मूल उद्देश्य को समझना: हमें सत्संग के मूल उद्देश्य को समझना चाहिए और उसके अनुसार अपना जीवन जीना चाहिए।
- संतों के आदर्शों पर चलना: हमें संत महापुरुषों के आदर्शों पर चलते हुए समाज सेवा में अपना योगदान देना चाहिए।
- एकता और भाईचारे का भाव: हमें सत्संग में एकता और भाईचारे का भाव रखना चाहिए।
निष्कर्ष:
सत्संग हमें भक्ति और सेवा का मार्ग दिखाता है। हमें इस मार्ग पर चलते हुए अपने जीवन को सार्थक बनाना चाहिए। रसीद बुक जैसी छोटी-छोटी बातों को लेकर हमें लड़ना नहीं चाहिए बल्कि सेवा और भक्ति में लीन हो जाना चाहिए।
आप क्या सोचते हैं?
यह ब्लॉग पोस्ट सत्संग में रसीद बुक को लेकर होने वाली प्रतियोगिता पर एक नजर डालता है। आप इस विषय पर अपनी राय हमें कमेंट करके बता सकते हैं।