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जरूर पढ़ें स्टेज पर बैठकर विचार करने वाले महापुरुष ने कभी सोचा है #nirankarivichar #santvichar

 सतगुरु का मंच... यह एक साधारण सी दिखने वाली जगह, लेकिन आध्यात्मिक जगत में इसका एक विशेष महत्व है। यह सिर्फ कुछ लकड़ियों या ईंटों से बना एक ढांचा नहीं है, बल्कि यह एक जिम्मेदारी का प्रतीक है, एक ऐसा स्थान है जहाँ से सत्य और प्रेम की वाणी गूँजती है। जब कोई व्यक्ति इस मंच पर बैठता है, तो उसे एक अनमोल अवसर मिलता है - सतगुरु की नजर से दुनिया को देखने का, उस दिव्य दृष्टिकोण को अपनाने का जो अहंकार और सांसारिक मोह से परे है।☝

मंच पर बैठने का अर्थ है अपनी व्यक्तिगत 'मैं' को, अपने अहंकार और घमंड को त्याग देना। यह समर्पण का भाव है, यह स्वीकारोक्ति है कि हम उस परम शक्ति का एक छोटा सा हिस्सा हैं। उस ऊँचाई पर बैठकर, जब कोई व्यक्ति विचार व्यक्त करता है, तो वे विचार सिर्फ शब्द नहीं होने चाहिए, बल्कि उनके जीवन का दर्पण होने चाहिए। उनकी कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं होना चाहिए।

कल्पना कीजिए, यदि मंच पर बैठा कोई व्यक्ति यह कहता है कि सभी महापुरुष एक समान हैं, सभी सतगुरु के ही रूप हैं, तो उसके इस कथन का वजन तभी होगा जब वह नीचे उतरने के बाद भी इसी भाव को बनाए रखे। यदि मंच से उतरते ही उसकी नजरें लोगों के बाहरी दिखावे पर, उनके कपड़ों पर या उनकी धन-दौलत पर टिकने लगें, तो उसके मंच पर बैठने का क्या अर्थ रह जाता है? क्या वह वास्तव में उस सम्मान और जिम्मेदारी का हकदार है जो उस स्थान से जुड़ी है?

यह एक गंभीर प्रश्न है जिस पर हम सभी को विचार करना चाहिए। क्या हम सतगुरु के मंच को सिर्फ एक दिखावे की जगह बना रहे हैं, जहाँ मीठी बातें तो की जाती हैं लेकिन जीवन में उनका कोई अनुसरण नहीं होता? यदि हम सचमुच आध्यात्मिक प्रगति चाहते हैं, तो हमें यह समझना होगा कि सतगुरु का मंच कोई सिंहासन नहीं है जिस पर बैठकर अपनी श्रेष्ठता साबित की जाए। यह एक वेदी है जहाँ अहंकार की बलि दी जाती है और सेवा भाव को अपनाया जाता है।

जब कोई व्यक्ति उस पवित्र स्थान पर बैठकर 'सब एक हैं' का संदेश देता है, तो यह संदेश उसके रोम-रोम से महसूस होना चाहिए। उसकी दृष्टि में सभी समान होने चाहिए, चाहे वे किसी भी जाति, धर्म, या सामाजिक स्तर के हों। धन-दौलत या बाहरी आकर्षण उसकी नजरों को भ्रमित नहीं कर सकते। उसकी करुणा और प्रेम का दायरा इतना विस्तृत होना चाहिए कि उसमें हर प्राणी समा जाए।

यदि मंच पर बैठकर कोई व्यक्ति ज्ञान की बातें करता है और नीचे उतरकर उन्हीं सांसारिक बंधनों में उलझा रहता है, तो वह न केवल स्वयं को धोखा दे रहा है, बल्कि दूसरों को भी भ्रमित कर रहा है। सतगुरु का मार्ग सत्य का मार्ग है, और सत्य कथनी और करनी की एकता में ही निहित है।

इसलिए, अगली बार जब हम किसी को सतगुरु के
मंच पर देखें, तो हमें सिर्फ उसके शब्दों पर ही ध्यान नहीं देना चाहिए, बल्कि उसके जीवन को भी देखना चाहिए। क्या उसके विचार उसके जीवन में झलकते हैं? क्या उसका व्यवहार उसकी वाणी के अनुरूप है? यही वह कसौटी है जिससे यह पता चलता है कि कोई व्यक्ति वास्तव में उस पवित्र स्थान पर बैठने का हकदार है या नहीं।

सतगुरु का मंच एक जिम्मेदारी है, एक चुनौती है स्वयं को बेहतर बनाने की, अपने अहंकार को त्यागकर प्रेम और करुणा को अपनाने की। यह एक अवसर है सत्य को जीने का, न कि सिर्फ उसका बखान करने का। आइए हम सब मिलकर यह प्रयास करें कि सतगुरु का मंच हमेशा सत्य और सेवा का प्रतीक बना रहे  

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