हमारे सत्संग मंचों पर अक्सर देखा जाता है कि संत महापुरुष अपने विचार प्रस्तुत करते समय पुराने धार्मिक ग्रंथों की कथाओं—जैसे रामायण, महाभारत, या टीवी पर दिखाई गई विवेचनाओं—का अधिक उल्लेख करते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि ये ग्रंथ अत्यंत पावन और जीवनदायी हैं, लेकिन जब हम इन्हीं कथाओं को बार-बार सुनते हैं, तो कहीं-न-कहीं हम आज के समय में प्रासंगिक और हमारे संगत साहित्य में छपी नई सीखों को नजरअंदाज कर बैठते हैं।
सत्संग की पुस्तकें केवल साधारण कहानियों का संग्रह नहीं, बल्कि आज के युग के अनुसार जीवन को साकारात्मक दिशा देने वाली सीखों की खान हैं। इनमें छपी कथाएँ, अनुभव, और विचार हर वर्ग के व्यक्ति के लिए एक मार्गदर्शक का कार्य कर सकते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि स्टेज पर बैठने वाले वक्ता इन पुस्तकों से प्रेरणा लेने की बजाय केवल प्राचीन ग्रंथों पर टिके रहते हैं—वह भी वही बातें, जो समाज पहले ही फिल्मों, टीवी धारावाहिकों या स्कूलों के माध्यम से जान चुका है।
इस प्रकार सत्संग की वह शक्ति, जो कि 'आज के समय की चुनौतियों' पर विचार देकर एक सामान्य व्यक्ति का मार्गदर्शन कर सकती है, वह शक्ति धीरे-धीरे कमजोर हो रही है। हमें यह स्वीकार करना होगा कि सत्संग केवल इतिहास की चर्चा का मंच नहीं, बल्कि आज के समाज की आवश्यकताओं के अनुसार आत्मचिंतन और आत्मविकास का साधन है।
संगत साहित्य की पुस्तकों में जो विचार प्रस्तुत किए गए हैं, वे हमें सिखाते हैं कि कैसे सेवा, संयम, विनम्रता, समर्पण और निरंकार से जुड़कर हम अपने जीवन को सार्थक बना सकते हैं। इनमें समकालीन परिस्थितियों का विवेचन और समाधान भी प्रस्तुत है—जैसे परिवार में तालमेल, जीवन में अनुशासन, समाज में प्रेम और कार्यस्थल पर ईमानदारी।
इसलिए आवश्यकता है कि हमारे वक्ता इन पुस्तकों को पढ़ें, उनका चिंतन करें और विचारों में उसका समावेश करें। तभी सत्संग एक जीवंत अनुभव बनेगा, जो न केवल अतीत को जोड़ता है, बल्कि वर्तमान को संवारने और भविष्य को उज्ज्वल बनाने का कार्य करता है।
अब समय आ गया है कि हम सत्संग मंचों को केवल पुरानी कहानियों का मंच न बनाकर, इन्हें जीवन रूपांतरण के केंद्र के रूप में देखें और संत महापुरुषों से यही अपेक्षा करें कि वे संगत साहित्य की रोशनी में जीवन के मौजूदा सवालों पर विचार रखें। इससे संगत को भी आत्मसंतोष मिलेगा और समाज को भी एक नई दिशा।