प्रचार और प्रसार का कार्य केवल एक व्यक्ति पर मोहताज नहीं होना चाहिए। जब तक कोई टीम या संगठन नहीं बनता, प्रचार तो होता रहेगा, लेकिन उसका सही मायने में विस्तार और बढ़ावा नहीं होगा। अधिकतर देखा गया है कि धार्मिक संस्थाओं में जब किसी एक व्यक्ति को छोटी जगह की जिम्मेदारी मिल जाती है, तो
यह मानसिकता उसे सीमित कर देती है, और वह अपने ही इलाके में सिमटकर रह जाता है। इसके साथ ही, उसका बर्ताव भी दूसरों के प्रति कठोर और अनुचित हो सकता है। ऐसे में लोगों के दिलों में उसके प्रति नफरत पैदा हो जाती है। अब ऐसे में वह व्यक्ति प्रचार और प्रसार कैसे करेगा?
अक्सर देखा गया है कि जब कोई बड़ा अधिकारी या संत उस क्षेत्र का निरीक्षण करने आते हैं, तो वह व्यक्ति बड़े अच्छे ढंग से सभी से प्यार और नम्रता से पेश आता है। वह दिखाता है कि सब कुछ सही चल रहा है। लेकिन जैसे ही अधिकारी वहां से चले जाते हैं, वह फिर से वही पुराने तरीके से व्यवहार करने लगता है—दूसरों को नीचा दिखाने की कोशिश में लगा रहता है, और खुद को ऊंचा दिखाने की।
इस तरह के रवैये से न तो कभी प्रचार और प्रसार हुआ है, और न ही होगा। इसलिए, ज़रूरी है कि छोटे-छोटे इलाकों में भी एक टीम बनाई जाए, ना कि एक इंचार्ज। संगठन में एकता और सामूहिक सहयोग से ही असली प्रचार संभव हो सकता है।
मेरे सतगुरु आपकी कृपा से, हमें इस बात का हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि प्रचार का कार्य केवल संगठित प्रयासों से ही प्रभावी रूप से किया जा सकता है। हमें सभी के साथ प्रेम और समानता का व्यवहार रखना चाहिए। यही सही मार्ग है।
धन निरंकार जी।"