अध्यात्मिकता और आर्थिक भेदभाव: एक विचारणीय स्थिति
आज के दौर में जहां एक ओर लोग आर्थिक तंगी से गुजर रहे हैं, वहीं कुछ संस्थाएं धर्म के नाम पर धन इकठ्ठा करने में लगी हुई हैं। इन संस्थाओं के माध्यम से गरीब परिवारों की मेहनत का पैसा इकट्ठा होता है और उसे अपने ऐश्वर्य में व्यर्थ किया जाता है। यह एक गंभीर समस्या है, विशेषकर तब जब ये संस्थाएं विदेशों में जाकर श्रद्धालुओं के घर-घर जाकर सेवा करते हैं, लेकिन अपने देश लौटते ही स्थानीय संतों और महापुरुषों से दूर-दूर रहते हैं।
अध्यात्म के मार्ग में यह भेदभाव न केवल अनुचित है बल्कि निरंकार प्रभु के दर्शन में भी बाधक है। यह विद्रूपता समाज में गहरे पैठ चुकी है और इसका निवारण अत्यंत आवश्यक है। अध्यात्मिकता का वास्तविक अर्थ प्रेम, नम्रता, और समर्पण है, लेकिन जब हम किसी व्यक्ति के कपड़ों या आर्थिक स्थिति के आधार पर उसकी भक्ति भावना को मापने लगते हैं, तो हम सच्चे अध्यात्म से दूर हो जाते हैं।
इतिहास में संत रविदास जी और अन्य कई संतों का उदाहरण हमारे सामने है जिन्होंने बिना आर्थिक संपन्नता के अद्वितीय आध्यात्मिक ऊंचाईयां प्राप्त कीं। उनके पास वह अलौकिक शक्ति थी जो उन्हें निरंकार प्रभु के साक्षात्कार का अनुभव कराती थी।
आज की स्थिति इसके विपरीत है, जहां अच्छे कपड़े और बड़ा बैंक बैलेंस रखने वाले को ही सबसे बड़ा भक्त माना जाता है। यह एक विरोधाभास है जिसे हमें समझने और दूर करने की आवश्यकता है।
ध्यान रखना चाहिए कि सच्ची भक्ति और अध्यात्मिकता का संबंध हमारे मन और आत्मा से है, न कि हमारी आर्थिक स्थिति या बाहरी दिखावे से। हमें निंदा, नफरत, और चुगली से दूर रहकर प्रेम, नम्रता, और सरल दृष्टि के भाव को अपनाना चाहिए। यही सच्चे अध्यात्म का मार्ग है और यही निरंकार प्रभु के साक्षात्कार का साधन है।