हमें जीवन में यह समझना है कि हम 'मैं' और 'मेरी' के बोझ से मुक्त होकर ही सच्चा आनंद प्राप्त कर सकते हैं। जैसे एक छिपकली यह भ्रम पाले रखती है कि मकान उसी के सहारे टिका है, वैसे ही मनुष्य भी 'मैं कमाने वाला हूँ', 'मैं पालन-पोषण करने वाला हूँ' जैसे विचारों में उलझा रहता है। जबकि वास्तव में, कर्ता-धर्ता तो निरंकार प्रभु ही हैं। जब हम सद्गुरु की शरण में आकर इस सत्य को जान लेते हैं, तो सारी चिंताएं दूर हो जाती हैं और हमारा जीवन आनंदमय हो जाता है।
यह समझना अति आवश्यक है कि परमात्मा हर कण में व्याप्त है, और उसकी भक्ति के लिए हमें कहीं और जाने की आवश्यकता नहीं। हर पल, हर क्षण, अपने दैनिक कार्यों में भी हम निरंकार का स्मरण कर सकते हैं। हमारा मन तभी शांत होगा जब उसमें निरंकार का वास होगा। सेवा का भाव भी इसी निरंकार से जोड़ता है। जब हम निस्वार्थ भाव से सेवा करते हैं, तो अहंकार का कोई स्थान नहीं रहता और हम केवल निमित्त बन जाते हैं, क्योंकि कर्ता तो स्वयं निरंकार ही है।
तो आओ, इस अनमोल मानव जीवन को निरंकार के एहसास में जीते हुए, सेवा, सिमरन और सत्संग के माध्यम से अपने जीवन को आनंद और शांति से भर दें। धन निरंकार जी।