भक्ति में अहंकार: सेवा, सुमिरन और सत्संग का सही मार्ग
भक्ति का मार्ग प्रेम, समर्पण और विनम्रता का होता है। जब हम सेवा, सुमिरन और सत्संग के माध्यम से अपने जीवन को सुंदर और अर्थपूर्ण बना रहे होते हैं, तो यह आवश्यक है कि हम अपने मन में उठने वाले अहंकार के विचारों से सावधान रहें।
सत्संग और भक्ति का वास्तविक उद्देश्य है अपने भीतर के दोषों को पहचानना और उन्हें सुधारना। लेकिन कई बार ऐसा होता है कि जब हमें सत्संग, सेवा और सुमिरन का आनंद आने लगता है, तो हमारे अंदर यह भावना घर कर जाती है कि "मैं सबसे बड़ा धर्मी हूं। मुझसे बड़ा भक्ति करने वाला कोई नहीं।" यही सोच हमारे मन के लिए घातक बन जाती है।
अहंकार मनुष्य को विनम्रता से कोसों दूर ले जाता है और यही वह क्षण होता है जब भक्ति का फल व्यर्थ होने लगता है। जो सेवा और सुमिरन हमें आध्यात्मिक ऊंचाईयों पर ले जा सकते थे, वे अब केवल दिखावे का माध्यम बन जाते हैं। इस स्थिति में मनुष्य का ध्यान दूसरों की गलतियों और कमियों पर केंद्रित हो जाता है, और वह सत्संग की वास्तविक भावना से दूर होता चला जाता है।
इसलिए जब हम सत्संग और सेवा में लीन हों, तो हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि:
- हमारे शब्द और कर्म किसी भी संत को ठेस न पहुंचाएं।
- हमारी भक्ति और सेवा में विनम्रता का भाव बना रहे।
- हम अपने मन को हमेशा आत्मनिरीक्षण और सुधार की ओर लगाएं।
सत्संग, सेवा और सुमिरन का मूल उद्देश्य है कि हम अपने अहंकार को समाप्त कर Nirankar (निर्विकार परमात्मा) के साथ एकत्व स्थापित करें। अगर अहंकार हमारी भक्ति का हिस्सा बन जाता है, तो यह हमें परमात्मा से और अधिक दूर कर देगा।
ध्यान रहे, सत्संग का लाभ तब तक नहीं हो सकता जब तक हम अपनी गलतियों को स्वीकार न करें और उन्हें सुधारने का प्रयास न करें। विनम्रता, समर्पण और प्रेम के बिना भक्ति अधूरी है।