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"सेवा, सुमिरन और सत्संग: भेदभाव से परे एक समान दृष्टि"

 महापुरुषों जी कितना सुंदर कहा है कि सेवा, सुमिरन और सत्संग का महत्व केवल बाहरी दिखावे में नहीं है, बल्कि यह हमारे अंदर के भाव और विचारों में निहित होता है। सतगुरु द्वारा दिखाया गया मार्ग हमें सिखाता है कि हम सभी एक समान हैं क्योंकि हम सभी के अंदर एक ही परमात्मा, एक ही निरंकार का अंश है।

जब हम सेवा करते हैं, सच्चे अर्थों में सेवा का तात्पर्य बिना भेदभाव के हर किसी की मदद करना होता है। अमीर-गरीब, ऊंच-नीच, जाति-पंथ के भेदभाव से ऊपर उठकर हमें सभी के प्रति समान दृष्टि रखनी चाहिए। अगर हमारे मन में यह विचार आए कि यह व्यक्ति गरीब है या अमीर, और उसी के अनुसार हम उनके प्रति व्यवहार करते हैं, तो यह हमारे मन की संकीर्णता को दर्शाता है।

सत्संग हमें सिखाता है कि ईश्वर की कृपा सब पर समान होती है। अमीर-गरीब केवल बाहरी स्थिति है, लेकिन आत्मा तो एक समान है। सेवा के माध्यम से हमें यह समझना चाहिए कि यह हमारा कर्तव्य है कि हर जरूरतमंद के साथ बिना किसी भेदभाव के समान व्यवहार करें। यही सेवा की सच्ची भावना है।

सुमिरन हमें अहंकार से मुक्त करता है और हमें एक ऐसी अवस्था में ले जाता है, जहां हम हर किसी को समान दृष्टि से देख पाते हैं। सतगुरु की बताई राह पर चलकर, जब हम सेवा, सुमिरन और सत्संग को अपनाते हैं, तो हमारा जीवन आनंदमय और सुखी हो जाता है।

निष्कर्ष:
हमें चाहिए कि हम भेदभाव को त्यागकर सेवा करें, सुमिरन में लीन हों और सत्संग में ज्ञान प्राप्त कर अपने जीवन को सुखमय बनाएं। साथ ही, अपने संपर्क में आने वाले हर संत, महापुरुष और मानव को भी सुख और खुशी प्रदान करें।

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