कुछ दिनों पहले मुझे एक सत्संग में जाने का अवसर प्राप्त हुआ, जहां मैंने महसूस किया कि हम लोग अक्सर एक-दूसरे की प्रशंसा में ही व्यस्त हो जाते हैं और सतगुरु के कार्य को भूल जाते हैं। आधे से ज्यादा समय, संगत के इंचार्ज की प्रशंसा और बधाई में ही निकल जाता है। यह प्रवृत्ति हमें असली उद्देश्य से भटकाती है, जो कि सतगुरु की महिमा का गुणगान करना है।
प्रशंसा का असली अर्थ
जब मुखी सत्संग का नेतृत्व कर रहे होते हैं, तो उनके समर्थक लगातार उनकी तारीफ में लगे रहते हैं। वह कहते हैं कि मुखी की वजह से बहुत सारे काम हो रहे हैं, जबकि वास्तविकता यह है कि सब कुछ सतगुरु की रहमत से ही हो रहा है। मुखी या इंचार्ज की तारीफ के चक्कर में, हम असली कारण को भूल जाते हैं – सतगुरु की कृपा।
समर्थकों का असर
मुखी के नीचे काम करने वाले लोग, जो अलग-अलग क्षेत्रों में छोटी-छोटी सत्संग चलाते हैं, उनके भी कुछ समर्थक होते हैं। यह समर्थक भी निरंतर अपने इंचार्ज की तारीफ में लगे रहते हैं और कहते हैं कि उनके घर आने से सारे काम हो जाते हैं। लेकिन असलियत में, सतगुरु की कृपा के बिना कुछ भी संभव नहीं है। यह धारणा संगत में एक अलग माहौल पैदा करती है, जिससे लोग सोचने लगते हैं कि इन इंचार्ज को बुलाने से ही हमारे काम होंगे।
सही दिशा में प्रेरित करना
हमारा मुख्य उद्देश्य यह होना चाहिए कि हम संगत को यह बताएं कि जो कुछ भी हो रहा है, वह सतगुरु की कृपा से ही हो रहा है। इसमें ना तो किसी इंचार्ज का कोई रोल है, ना ही किसी मुखी का। सतगुरु की कृपा ही सब कुछ है और वही सब कुछ कर रहे हैं और करते रहेंगे।
निष्कर्ष
हमें सत्संग में इस बात पर जोर देना चाहिए कि सतगुरु ही सब कुछ कर रहे हैं। हमें उनकी कृपा और रहमत के बारे में संगत को जागरूक करना चाहिए। इंचार्ज या मुखी की प्रशंसा में वक्त बिताने के बजाय, हमें सतगुरु की महिमा का गुणगान करना चाहिए और संगत को प्रेरित करना चाहिए कि सब कुछ सतगुरु की कृपा से हो रहा है। इससे संगत में सही माहौल बनेगा और लोग सही दिशा में प्रेरित होंगे।