धार्मिक संस्थाओं की बढ़ती भीड़: एक सोचनीय स्थिति
आज के समय में धार्मिक संस्थाओं की संख्या में बढ़ोतरी हो चुकी है। हर संस्था अपने आप को निरंकार प्रभु सत्ता का प्रमाणित प्रतिनिधि मानती है और अपने अनुयायियों को भगवान का दर्शन कराने का दावा करती है। अक्सर देखा जाता है कि इन संस्थाओं के सत्संग में गुरु को ही भगवान का दर्जा दे दिया जाता है।
84 लाख योनियों का भय
इन धार्मिक संस्थाओं में जुड़ने का एक प्रमुख कारण 84 लाख योनियों का भय दिखाना होता है। सत्संगों में बताया जाता है कि अगर आप इस संस्था से नहीं जुड़े तो आपको फिर से 84 लाख योनियों में जन्म लेना पड़ेगा। इस प्रकार का डर दिखाकर लोगों को संस्था से जोड़ने का प्रयास किया जाता है।
माया (पैसा) का नया चलन
एक और महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि अधिकांश सत्संगों में अब माया यानी पैसा लेने का एक नया चलन शुरू हो चुका है। पैसा लेने के लिए विभिन्न बहाने बनाए जाते हैं जैसे कि बिल्डिंग फंड, एजुकेशन फंड, सेवा फंड आदि।
सेवा या शोषण?
लोगों को यह समझाने का प्रयास किया जाता है कि वे जो पैसा संस्था को दे रहे हैं वह सेवा के रूप में है। लेकिन देखा जाए तो संस्था के अधिकांश सदस्य और उनके परिवार के लोग इस पैसे से लाभान्वित होते हैं। वे अमीर बनते जाते हैं, उनके बच्चे विदेश में पढ़ाई करने जाते हैं और वहीं बस जाते हैं। वहीं, गरीब वर्ग वहीं का वहीं रह जाता है।
निष्कर्ष
आज के समय में यह महत्वपूर्ण है कि हम अपनी समझ का उपयोग करें और सोच-समझकर ही किसी धार्मिक संस्था से जुड़ें। यह देखना आवश्यक है कि हमारी सेवा वास्तव में किसी के हित में है या नहीं। हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि धर्म का उद्देश्य मानवता की सेवा करना है, न कि किसी व्यक्ति विशेष या संस्था को अमीर बनाना।