भारत में बैंकों द्वारा मिनिमम बैलेंस (न्यूनतम शेष राशि) न रखने पर की जा रही कटौती एक ऐसा मुद्दा है जो लगातार गरीब और निम्न आय वर्ग के लोगों को प्रभावित कर रहा है। यह कटौती अक्सर उन खातों से की जाती है जिनकी मासिक आय ₹10,000 से कम होती है, और यह लगातार यह सवाल उठा रही है कि क्या यह प्रणाली वास्तव में न्यायपूर्ण है।
एक तरफ, हम देखते हैं कि बड़े-बड़े उद्योगपतियों, जैसे कि अनिल अंबानी, को हजारों करोड़ के कर्ज माफ कर दिए जाते हैं या छोटे-मोटे सेटलमेंट के जरिए उनके बड़े लोन को निपटा दिया जाता है। यह अक्सर "बैड लोन राइट-ऑफ" या "वन-टाइम सेटलमेंट" के नाम पर होता है, जहां बैंक बड़े डिफॉल्टर्स को राहत देते हैं। वहीं, दूसरी ओर, एक आम आदमी जिसका बैंक खाता उसकी गाढ़ी कमाई का जरिया है, उसे मिनिमम बैलेंस बनाए न रखने पर छोटे-छोटे शुल्क के रूप में लगातार नुकसान उठाना पड़ता है।
यह विडंबना साफ नजर आती है। एक अमीर व्यक्ति के करोड़ों के कर्ज माफ हो जाते हैं, लेकिन एक गरीब व्यक्ति के खाते से ₹50 या ₹100 की कटौती भी उसके लिए एक बड़ी चोट होती है। कई बार तो ये शुल्क इतने छोटे होते हैं कि ग्राहक को पता भी नहीं चलता, लेकिन धीरे-धीरे ये शुल्क एक बड़ी रकम बन जाते हैं।
बैंकों का तर्क होता है कि मिनिमम बैलेंस बनाए रखना परिचालन लागत (operational costs) को कवर करने और बैंकिंग सेवाओं को सुचारू रूप से चलाने के लिए आवश्यक है। हालांकि, यह तर्क तब कमजोर पड़ जाता है जब हम देखते हैं कि यही बैंक बड़े कॉर्पोरेट डिफॉल्टर्स के साथ अलग तरह से व्यवहार करते हैं। ऐसा लगता है जैसे मिनिमम बैलेंस की कटौती गरीबों की जेब से पैसा निकालने का एक "नया जरिया" बन गई है, जबकि अमीर और शक्तिशाली लोगों के लिए नियम अलग हैं।
यह स्थिति देश में वित्तीय असमानता को और बढ़ाती है। जब गरीबों को उनकी मेहनत की कमाई पर भी ऐसे अनावश्यक शुल्क चुकाने पड़ते हैं, तो उन्हें लगता है कि बैंकिंग प्रणाली उनके खिलाफ काम कर रही है। यह केवल वित्तीय नुकसान का मामला नहीं है, बल्कि यह विश्वास और न्याय का भी सवाल है।
सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) को इस मुद्दे पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। क्या मिनिमम बैलेंस की अनिवार्यता गरीब लोगों के लिए वास्तव में आवश्यक है? क्या कोई ऐसी वैकल्पिक प्रणाली नहीं हो सकती जो बैंकों की लागत को कवर करे और साथ ही छोटे खाताधारकों को भी राहत दे? जब तक इन सवालों का समाधान नहीं होता, तब तक मिनिमम बैलेंस की यह तलवार गरीबों पर लटकती रहेगी, जबकि अमीर वर्ग के लिए बैंक के दरवाजे कहीं ज्यादा खुले रहेंगे।