जब हम अपने जीवन में सच्ची खुशी की तलाश में निकलते हैं, तो अक्सर हमें निरंकार प्रभु के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त होता है। उस पल, जब हमारी आत्मा उस परम शक्ति से जुड़ती है, तो हमारे जीवन में एक नई रोशनी आती है, खुशियों की एक अनमोल धारा बहने लगती है। ऐसा लगता है कि जैसे हमारी सारी परेशानियां दूर हो गईं और जीवन एक मधुर संगीत बन गया।
लेकिन, क्या आपने कभी इस बात पर ध्यान दिया है कि जब यह खुशियां हमारे जीवन में दस्तक देती हैं, तो हम जाने-अनजाने में कुछ ऐसे कदम उठा लेते हैं जो इन खुशियों को कहीं न कहीं बाधित करने लगते हैं? हम सत्संग जैसी पवित्र जगह में भी अपने छोटे-छोटे समूह बना लेते हैं। "यह मेरा ग्रुप है, मैं इन्हीं के साथ सेवा करूंगा," "वह उनका ग्रुप है, मेरा उनसे कोई लेना-देना नहीं।" इस तरह की भावना धीरे-धीरे हमारे मन में घर करने लगती है।
शुरुआत में तो यह सब सामान्य लगता है। हम सोचते हैं कि अपने जान-पहचान के लोगों के साथ मिलकर सेवा करना या सत्संग में बैठना अच्छा है। लेकिन, जब यह भावना इतनी प्रबल हो जाती है कि हम दूसरों को अलग समझने लगते हैं, तो यहीं से समस्या शुरू होती है। धीरे-धीरे, इन छोटे-छोटे समूहों के बीच कहीं न कहीं तुलना, प्रतिस्पर्धा और फिर निंदा, नफरत और चुगली जैसी नकारात्मक भावनाएं पनपने लगती हैं।
हम उस पवित्र स्थान पर भी, जहाँ शांति और प्रेम का वास होना चाहिए, एक ऐसे दलदल में फंस जाते हैं जो हमारी खुशियों को सोख लेता है। जिस प्रभु के दर्शन से हमें आनंद मिला था, उस आनंद को हम अपनी ही बनाई हुई दीवारों के पीछे कैद कर लेते हैं।
क्या यह वही रास्ता है जिस पर हम चलना चाहते थे? क्या हमारी खुशियों का यही अंत होना चाहिए?
हमें यह समझना होगा कि सच्ची खुशी एकात्मता में है, सबको साथ लेकर चलने में है। भक्ति, सेवा और सिमरन के लिए समूह बनाना निश्चित रूप से अच्छा है, लेकिन जब इन समूहों का आधार व्यक्तिगत पसंद और नापसंद बन जाता है, जब हम यह सोचने लगते हैं कि 'मुझे इस व्यक्ति के साथ ही रहना है,' तो हम कहीं न कहीं उस विशाल परिवार से कट जाते हैं जिसका हम हिस्सा हैं।
हमें याद रखना चाहिए कि हम सब उस एक ही परमपिता की संतान हैं। सत्संग वह पवित्र स्थान है जहाँ हम सब मिलकर उस निराकार प्रभु की आराधना करने आते हैं। यहाँ कोई छोटा या बड़ा नहीं है, कोई अपना या पराया नहीं है।
इसलिए, आइए हम इस गुटबंदी के दलदल से बाहर निकलें। आइए, हम अपने हृदय को विशाल बनाएं और हर किसी को प्रेम और सम्मान दें। सेवा करें तो निस्वार्थ भाव से करें, बिना किसी अपेक्षा और बिना किसी समूह विशेष के बंधन में बंधे। सिमरन करें तो पूरे मन से करें, जिसमें हर आत्मा के लिए कल्याण की भावना हो।
याद रखें, सच्ची खुशी तभी स्थायी हो सकती है जब हम अपने भीतर से हर प्रकार की संकीर्णता को दूर कर दें और प्रेम, एकता और करुणा के मार्ग पर चलें। आइए, हम सब मिलकर उस आनंद को फिर से प्राप्त करें जो हमें निरंकार प्रभु के दर्शन से मिला था और उसे हमेशा बनाए रखें।