निरंकार से मांगना ही सच्ची अरदास है
महापुरुषों ने कितना सुंदर कहा है कि ज्ञान प्राप्ति के बाद इंसान के मन में यह सवाल उठता है कि वह अपनी प्रार्थना किससे करे—सतगुरु से या निरंकार से? इस विचार को समझने के लिए हमें सतगुरु और निरंकार के संबंध को गहराई से जानने की आवश्यकता है।
सतगुरु वह माध्यम हैं जो हमें इस निरंकार से परिचित कराते हैं। जब हम अज्ञान के अंधकार में होते हैं, तो सतगुरु का प्रकाश हमें सत्य की ओर ले जाता है। सतगुरु का ज्ञान हमें यह समझाता है कि यह निरंकार हर जगह, हर समय, हर कण में विद्यमान है। सतगुरु स्वयं भी इसी निरंकार का ही स्वरूप हैं।
इसलिए जब हम किसी चीज़ की इच्छा रखते हैं या कुछ मांगते हैं, तो यह जानना ज़रूरी है कि हमारी अरदास का सही केंद्र निरंकार है। सतगुरु का ज्ञान हमें सिखाता है कि यह निरंकार ही सब कुछ प्रदान करने वाला है। इसका अर्थ यह नहीं है कि सतगुरु की भूमिका को कमतर आंका जाए। सतगुरु ही तो हैं, जो हमारे हृदय को इस सत्य से जोड़ते हैं और हमारी आत्मा को निरंकार से मिलाते हैं।
निरंकार से मांगने का अर्थ यह भी है कि हम अपनी हर इच्छा को ईश्वर की इच्छा के अधीन रखते हैं। यह भाव जाग्रत होता है कि जो कुछ भी हमें प्राप्त होगा, वह हमारी भलाई के लिए होगा। अरदास के पीछे न केवल इच्छाओं की पूर्ति का उद्देश्य होना चाहिए, बल्कि यह भी कि हमारी आत्मा इस निरंकार के साथ पूर्णतः जुड़ जाए।
इस संदर्भ में सतगुरु हमें सिखाते हैं कि हर प्रार्थना के पीछे कृतज्ञता का भाव होना चाहिए। यह जानना चाहिए कि सतगुरु ने ही हमें यह दृष्टि दी है कि हम निरंकार के सामने झुक सकें। अगर सतगुरु का ज्ञान न होता, तो शायद हम आज भी संसार के मोह में उलझे रहते और अपने जीवन की सार्थकता को न समझ पाते।
इसलिए, जब हम सतगुरु और निरंकार के बीच चुनाव की बात करते हैं, तो समझना चाहिए कि दोनों अलग नहीं हैं। सतगुरु वह दर्पण हैं, जो हमें निरंकार का रूप दिखाते हैं। हमारी अरदास का केंद्र निरंकार है, लेकिन उसकी ओर जाने का मार्ग सतगुरु से होकर ही जाता है।
आओ मिलकर सतगुरु माता जी के चरणों में हम अरदास करते हैं कि हम इस ज्ञान को हमेशा अपने जीवन में बनाए रखें और निरंकार के प्रति श्रद्धा और समर्पण के साथ अपने जीवन को सुशोभित करें।
धन निरंकार जी।