एक समय की बात है, एक गांव में एक संत रहते थे, जो अपनी सेवा और समर्पण के लिए प्रसिद्ध थे। वह संत, वर्षों से सत्संग में निरंतर सेवा कर रहे थे। उनकी सेवा की निष्ठा इतनी गहरी थी कि लोग उन्हें अपने जीवन में प्रेरणा का स्रोत मानते थे। हर सुबह और शाम, वह संत महापुरुषों के साथ मिलकर सेवा में जुट जाते, अपने हर काम में पूर्णता का प्रयास करते, और हर किसी के चेहरे पर मुस्कान लाने का प्रयत्न करते।
एक दिन, जब वह संत सत्संग में सेवा कर रहे थे, तो अचानक उनकी तबीयत खराब हो गई। संत, जो हमेशा सेवा में आगे रहते थे, अब बिस्तर पर थे। महापुरुषों ने उनके लिए अरदास शुरू की, उनकी सेवा को याद किया, और प्रार्थना की कि वह जल्दी से ठीक हो जाएं।
लेकिन, जैसे-जैसे समय बीतता गया, कुछ महापुरुषों के बीच एक चर्चा शुरू हो गई। वह सोचने लगे कि अब जब यह संत सेवा में नहीं आ पा रहे हैं, तो उनके स्थान पर कौन इंचार्ज बनेगा? कौन उनकी सेवा की जिम्मेदारी लेगा? यह विचार सुनकर कुछ संत महापुरुषों के मन में एक विचित्र सी उदासी छा गई।
क्या यह वही संत नहीं थे, जिन्होंने अपनी पूरी जिंदगी सेवा में समर्पित कर दी? क्या यह वही संत नहीं थे, जिन्होंने हमें सेवा की सच्ची मूरत दिखाई? और आज, जब वह बीमार हैं, तो हम उनकी जगह पर किसी और को बिठाने की सोच रहे हैं?
तभी, एक संत ने अपनी आँखों में आँसू लिए हुए कहा, "महापुरुषों, यह समय किसी के स्थान लेने का नहीं, बल्कि उस संत के लिए अरदास करने का है। जिस सेवा के लिए उन्होंने अपना जीवन समर्पित किया, आज उसी सेवा का हमें उत्तर देना है। हमें उनके लिए प्रार्थना करनी चाहिए कि वह जल्द से जल्द ठीक होकर वापस आएं और फिर से सेवा में जुट जाएं।"
यह सुनकर सभी महापुरुषों ने सिर झुका लिया और अपने हृदय से प्रार्थना की। वह समझ गए कि सच्ची सेवा का मतलब केवल काम करना नहीं, बल्कि उन संतों के लिए भी प्रार्थना करना है, जिन्होंने हमारे लिए सेवा का मार्ग प्रशस्त किया है।
इस कहानी का संदेश यही है कि सेवा का मार्ग प्रेम और समर्पण का मार्ग है। जब कोई संत बीमार हो, तो हमारी सबसे बड़ी सेवा उसकी अरदास करना है, ताकि वह पुनः स्वस्थ होकर हमारे बीच लौट आए और हमें सेवा का सच्चा मार्ग दिखा सके।
धन निरंकार जी।