नफरत के बाजार में धार्मिकता की लालसा
आज के समाज में, जहाँ नफरत और प्रतिस्पर्धा का बोलबाला है, धार्मिक संस्थाओं में पद की लालसा एक आम बात हो गई है। यह स्थिति अत्यंत चिंताजनक है, क्योंकि धार्मिक संस्थाओं का उद्देश्य आध्यात्मिक शांति और निर्विकारता प्रदान करना होता है।जब व्यक्ति निरंकार प्रभु के दर्शन करने आता है, तो उसकी मनःस्थिति शांति और आत्म-समर्पण की होनी चाहिए। लेकिन वर्तमान में, लोग यहाँ भी अपनी पहुंच और प्रतिष्ठा दिखाने में व्यस्त रहते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि धार्मिक स्थानों पर भी ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा का माहौल बन जाता है।
इन धार्मिक आयोजनों में, जहाँ मनुष्य को आत्मिक शांति प्राप्त करनी चाहिए, वहीं लोग एक-दूसरे को प्रभावित करने में लगे रहते हैं। इस प्रवृत्ति का कोई स्थायी लाभ नहीं होता। एक समय ऐसा आता है जब लोग इन आयोजनों में जाना ही बंद कर देते हैं, क्योंकि उन्हें वहाँ से कोई प्रशंसा या पहचान नहीं मिलती।
यह समझना आवश्यक है कि धार्मिकता का मूल उद्देश्य आत्मा की शांति और परमात्मा की आराधना है। लोगों को चाहिए कि वे निरंकार प्रभु की ओर ध्यान केंद्रित करें और उनके सानिध्य में आत्मिक आनंद प्राप्त करें।
प्रतिस्पर्धा और पद की लालसा में अपने जीवन के अनमोल पलों को व्यर्थ न करें। जीवन को सार्थक बनाने के लिए, परमात्मा की सत्ता को पहचानें और उसे जीने का प्रयास करें। इस प्रकार, आप न केवल अपने जीवन को बेहतर बनाएंगे बल्कि समाज में भी एक सकारात्मक उदाहरण प्रस्तुत करेंगे।
ध्यान रखें, धार्मिकता का सही अर्थ स्वयं को पहचानना और प्रभु की ओर अग्रसर होना है। इसे किसी प्रकार की दिखावा या प्रतिस्पर्धा में न बदलें। जीवन को आध्यात्मिक मार्ग पर चलाकर ही सच्ची शांति और संतोष प्राप्त किया जा सकता है।
अंत में,, हमें याद रखना चाहिए कि धर्म और अध्यात्म का उद्देश्य हमारे भीतर की शांति और आत्म-जागरण को बढ़ावा देना है। इसे बाहरी दिखावे और प्रतिस्पर्धा से मुक्त रखें। अपने जीवन को आध्यात्मिकता के सही मार्ग पर चलाएं और प्रभु के सानिध्य में शांति और सुख का अनुभव करें।