हाथरस की सत्संग जैसी कई सत्संग संस्थाओं में यह देखा गया है कि वहाँ गरीब मजदूर वर्ग के लोग बड़ी संख्या में पहुंचते हैं। यह लोग अपनी आध्यात्मिक तृप्ति के लिए सत्संग में सम्मिलित होते हैं और सेवा कार्यों में भी भाग लेते हैं। सेवादार बनने के पीछे इनका उद्देश्य अक्सर अपने जीवन में चमत्कार की उम्मीद होती है।
इन सत्संगों में सेवा कार्य में सबसे अधिक योगदान देने वाले ये गरीब सेवादार होते हैं, जिनका किसी भी प्रकार की पहचान या साधन नहीं होता। यह लोग पूरी लगन और निष्ठा के साथ सेवा करते हैं, फिर भी जब भी मुख्य पदों पर किसी की नियुक्ति की जाती है, तो इनका चयन नहीं किया जाता।
मुख्य पदों पर वही लोग नियुक्त होते हैं जिनके पास पर्याप्त पैसा और ऊंची जान-पहचान होती है। यह असमानता जिले स्तर पर ही नहीं, छोटे-छोटे इलाकों में भी देखी जा सकती है। गरीब सेवादारों की बड़ी संख्या होते हुए भी उन्हें उच्च पदों पर कभी नहीं चुना जाता। केवल ऊंची जाति और जान-पहचान रखने वाले लोगों को ही संयोजक बनाया जाता है।
यह स्थिति सत्संग की आत्मा और उद्देश्य के विपरीत है, क्योंकि सत्संग का मुख्य उद्देश्य सभी को समान अवसर और सम्मान प्रदान करना होना चाहिए। इस प्रकार की असमानता और भेदभाव से सत्संग के वास्तविक उद्देश्यों पर प्रश्नचिह्न लगता है और यह समाज में असंतोष और विभाजन को बढ़ावा देता है।
समाज को इस प्रकार की असमानता के खिलाफ जागरूक होने और इसे समाप्त करने के लिए प्रयासरत होना चाहिए। सत्संग संस्थाओं को भी यह समझना चाहिए कि सेवा और निष्ठा का मूल्य पहचान और पैसे से नहीं आंका जाना चाहिए। इस दिशा में सकारात्मक परिवर्तन से ही एक सच्चे और न्यायपूर्ण समाज की स्थापना हो सकेगी।