सत्संग: आत्मशुद्धि का मार्ग या अहंकार का जाल?
सत्संग एक पवित्र स्थान है, जहाँ हम निरंकार प्रभु की महिमा का गुणगान करते हैं, सतगुरु की वाणी सुनते हैं और आत्मशुद्धि का प्रयास करते हैं। जब हम श्रद्धा और समर्पण भाव से सत्संग में बैठते हैं, तो हमारे मन में शांति और आनंद की लहरें उमड़ने लगती हैं। यह वातावरण हमें अहंकार, लोभ, और मोह जैसी बुराइयों से मुक्त करने के लिए होता है।
लेकिन कई बार ऐसा देखने को मिलता है कि सत्संग में भी निंदा, भेदभाव और दिखावे की छाया पड़ने लगती है। कुछ लोग जाति, धन, या अपनी सामाजिक हैसियत के आधार पर खुद को श्रेष्ठ मानने लगते हैं, जिससे अहंकार जन्म लेता है। यह अहंकार हमें धीरे-धीरे निरंकार प्रभु की असीम कृपा से दूर कर देता है।
सच्चे ज्ञान का अहंकार में बदल जाना
जब सद्गुरु हमें निरंकार प्रभु के दर्शन कराते हैं, तो हमारा जीवन आनंद से भर जाता है। लेकिन जैसे-जैसे हम संतों और महापुरुषों के करीब जाते हैं, उनके ज्ञान की चर्चा करते हैं, तो कभी-कभी यही ज्ञान अहंकार में बदल जाता है। कई बार देखा जाता है कि लोग अपने ज्ञान का उपयोग दूसरों को नीचा दिखाने में करने लगते हैं, जिससे भेदभाव और दिखावा हमारे मन में घर करने लगता है।
समाधान: आत्मशुद्धि और समर्पण
इसका एकमात्र समाधान यही है कि हम निरंकार प्रभु और सद्गुरु के विचारों को अपने जीवन में पूर्ण रूप से अपनाएँ। हमें अपने अंदर की बुराइयों को पहचानकर उन्हें दूर करने का प्रयास करना चाहिए। सच्ची भक्ति का अर्थ है—स्वयं को विनम्र बनाना, समर्पण भाव रखना और प्रेमपूर्वक संगत में बैठना।
जब हम अपने आप को सुधारेंगे, तो हमारे आसपास का वातावरण भी स्वतः सुधर जाएगा। संसार को बदलने की शुरुआत हमें स्वयं से करनी होगी। अगर हम चाहते हैं कि समाज में प्रेम और सौहार्द बना रहे, तो पहले हमें अपने भीतर से भेदभाव, निंदा, और अहंकार को समाप्त करना होगा।
संतों से विनम्र निवेदन
महापुरुषों और संतों से यही निवेदन है कि वे आत्मशुद्धि का मार्ग अपनाएँ, क्योंकि जब वे स्वयं सुधरेंगे, तो उनके द्वारा प्रेरित पूरा समाज भी सुधरता हुआ नजर आएगा। सत्संग का उद्देश्य केवल शब्दों में नहीं, बल्कि जीवन में वास्तविक परिवर्तन लाना है।
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